आदिवासी जमीनों पर संगठित षड्यंत्र: प्रशासन, सत्ता और भू-माफिया की मिलीभगत?

जशपुर। छत्तीसगढ़ में एक आदिवासी मुख्यमंत्री के नेतृत्व में सरकार होने के बावजूद, उनके ही गृह जिले में आदिवासी जमीनों की अवैध खरीद-फरोख्त और कब्जे के गंभीर मामले सामने आ रहे हैं। सूत्रों का कहना है कि प्रशासन, सत्ता और भू-माफिया के गठजोड़ से एक संगठित षड्यंत्र चल रहा है, जिसमें हजारों करोड़ रुपये का भ्रष्टाचार शामिल हो सकता है। इस पूरे खेल में कुछ आदिवासी दलालों की भी संलिप्तता बताई जा रही है, जो अपनी ही कौम की जमीनों को गैर-आदिवासियों के हाथों में सौंपने में मदद कर रहे हैं। यदि इस पूरे मामले की निष्पक्ष जांच हो, तो जिले में हजारों ऐसे मामले उजागर हो सकते हैं, जहां आदिवासी अपनी पुश्तैनी जमीनों से बेदखल हो चुके हैं।
170(ख) का दुरुपयोग और अवैध कब्जे
सबसे गंभीर आरोप यह है कि छत्तीसगढ़ भू-राजस्व संहिता की धारा 170(ख) का दुरुपयोग कर आदिवासी जमीनों को गैर-आदिवासियों के नाम करने का खेल चल रहा है। सूत्रों के मुताबिक, इस संगठित प्रक्रिया के तहत पहले जमीन किसी ‘विश्वासपात्र आदिवासी’ के नाम पर खरीदी जाती है, फिर 170(ख) का प्रावधान लागू कर मामला कुछ महीनों के लिए दबा दिया जाता है। इसके बाद छह महीने से एक साल के भीतर यह जमीन गैर-आदिवासी के नाम कर दी जाती है। यदि इस पूरे षड्यंत्र की गहराई से जांच की जाए, तो हजारों ऐसे मामले सामने आ सकते हैं, जहां इस रणनीति का उपयोग कर आदिवासी जमीनों का बड़े पैमाने पर हेरफेर किया गया है।
कानूनी प्रावधानों की अनदेखी
- संविधान की पांचवीं अनुसूची और PESA अधिनियम: इन प्रावधानों के तहत आदिवासी भूमि के हस्तांतरण के लिए ग्राम सभा की अनुमति अनिवार्य होती है। लेकिन सूत्रों का कहना है कि कई मामलों में ग्राम सभा से मंजूरी नहीं ली जाती या फिर फर्जी दस्तावेज तैयार कर प्रशासन को गुमराह किया जाता है।
- नगर प्रशासन और टाउन एंड कंट्री प्लानिंग (TCP) नियम: किसी भी कृषि भूमि को आवासीय, व्यावसायिक या औद्योगिक उपयोग में बदलने के लिए संबंधित विभागों की स्वीकृति आवश्यक होती है। इसके बावजूद, जिले में बिना किसी वैधानिक अनुमति के जमीन की प्लॉटिंग और बिक्री हो रही है।
प्रशासन की चुप्पी पर सवाल
सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि क्या प्रशासन और सरकार इस पूरे षड्यंत्र से अनजान हैं, या फिर जानबूझकर इसे अनदेखा कर रहे हैं? क्या राजस्व विभाग, नगर पालिका और स्थानीय प्रशासन इस घोटाले की जानकारी होने के बावजूद चुप हैं? क्या सत्ता से जुड़े प्रभावशाली लोग इस षड्यंत्र में शामिल हैं, इसलिए इसे दबाने की कोशिश की जा रही है? यदि सरकार निष्पक्ष है, तो वह इस मामले की सीबीआई या ईडी से जांच क्यों नहीं करवा रही?
भ्रष्टाचार और संगठित अपराध का गठजोड़
सूत्रों का कहना है कि यह मामला सिर्फ आदिवासी जमीनों की हेराफेरी तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें अरबों रुपये के भ्रष्टाचार, मनी लॉन्ड्रिंग और सत्ता के संरक्षण में पल रहे संगठित अपराध की भी कड़ी जुड़ी हो सकती है। यह भी माना जा रहा है कि इस अवैध सौदेबाजी से निकला काला धन बड़े राजनीतिक आकाओं तक पहुंचता होगा, जिससे प्रशासन और सरकार इस पर चुप्पी साधे हुए हैं।
आदिवासियों का भविष्य खतरे में
यदि इस सुनियोजित षड्यंत्र पर जल्द रोक नहीं लगाई गई, तो आने वाले समय में आदिवासी अपनी ही पुश्तैनी जमीनों से बेदखल हो जाएंगे, और उनकी जगह रसूखदार लोगों की कोठियां और व्यावसायिक इमारतें खड़ी हो जाएंगी।
अब सवाल यह उठता है –
क्या सरकार इस संगठित भ्रष्टाचार की निष्पक्ष जांच करवाकर दोषियों पर कार्रवाई करेगी, या फिर यह मामला भी अन्य घोटालों की तरह सत्ता की मिलीभगत से दफना दिया जाएगा?